सचवा संकलन

SACHVA SANKALAN


क्या भला मुझको परखने का नतीजा निकला,
ज़ख्मे दिल तेरी नज़रों से भी गहरा निकला।

तोड़ कर देख लिया आईना ऐ दिल तूने,
तेरी तस्वीर के सिवा और बता क्या निकला।

जब भी कभी तुझको पुकारा मेरी तन्हाई ने,
बू उड़ी फूल से, तस्वीर से साया निकला।

तिश्नगी जम गई पत्थर  की तरह होठों पे,
डूब कर तेरे दरिया से में प्यासा निकला।

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बुला रहा है कौन मुझको चिलमनों के उस तरफ।
मेरे लिए भी क्या कोई उदास बेकरार है?

सचवा संकलन
Sachva sankalan


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हज़ार बर्फ गिरे, लाख आंधियां निकलें।
वो फूल खिल के रहेंगे, जो खिलने वाले हैं।
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दूरी हुई तो उनसे और क़रीब हम हुए।
अरे ये कैसे फाँसले थे जो बढ़ने से कम हुए॥
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बिना तेज के पुरुष की अवशि अवज्ञा होय ।
आगि बुझे ज्यों राख की आप छुवै सब कोय ।।

अर्थात – तेजहीन व्यक्ति की बात को कोई भी व्यक्ति महत्व नहीं देता है। उसकी आज्ञा का पालन कोई नहीं करता है। ठीक वैसे हीं जैसे, जब राख की आग बुझ जाती है तो उसे हर कोई छूने लगता है। 
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सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा । गाबहि मुनि पुराण बुध भेदा।
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बश सगुन सो होई।

अर्थात– सगुण और निर्गुण में कोई अंतर नही है। मुनि पुराण पन्डित बेद सब ऐसा कहते हैं। जेा निर्गुण निराकार अलख और अजन्मा है वही भक्तों के प्रेम के कारण सगुण हो जाता है।
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सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।

अर्थात— सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण – ये प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुण अविनाशी जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं।
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करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान।।

अर्थात— जैसे कुए से पानी खींचने के लिए बर्तन से बाँधी हुई रस्सी कुए के किनारे पर रखे हुए पत्थर से बार-बार रगड़ खाने से पत्थर पर भी निशान बना देती है, ठीक उसी प्रकार किसी काम का बार-बार अभ्यास करने से मंद बुद्धि व्यक्ति भी उस काम का विशेषज्ञ हो जाता है।
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सुभ अरू असुभ सलिल सब बहई। 
सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई।।

समरथ कहु नहि दोश् गोसाईं। 
रवि पावक सुरसरि की नाई।।


अर्थात—गंगा में पवित्र और अपवित्र सब प्रकार का जल बहता है परन्तु कोई भी गंगाजी को अपवित्र नही कहता। सूर्य आग और गंगा की तरह समर्थ ब्यक्ति को कोई दोष नही लगाता है।

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मैंने निभाया है हर रिश्ता ईमानदारी से।
यकीन मानिए कुछ नहीं मिलता इस वफ़ादारी से।।
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