आत्म-छवि
Written by
Brij Sachdeva
आत्म-अवधारणा यानी आत्म-छवि का निर्माण बचपन और शुरुआती वयस्कता के दौरान होता है, जिसके दौरान यह अधिक लचीला होता है। जिस बच्चे को परिवार में सम्मान, देखभाल और प्यार मिलता है, उसमें एक अलग तरह की अकड़ और मन की शक्ति विकसित होती है, जबकि जिस बच्चे को इन सभी सुविधाओं से वंचित रखा जाता है, उसकी अकड़ और मन की शक्ति अलग तरह की होती है। दरअसल, जीवन के शुरुआती वर्षों में करीबी लोगों और आसपास की जीवन स्थितियों के कारण मन की शक्ति को जो नुकसान या वृद्धि होती है, वह लगभग अपरिवर्तनीय होती है। हालाँकि बाद के वर्षों में आत्म-अवधारणा को संशोधित करना संभव है, लेकिन यह अधिक चुनौतीपूर्ण कार्य बन जाता है क्योंकि व्यक्ति पहले से ही अपने बारे में अपनी मान्यताओं को पुख्ता कर चुके होते हैं। विशेष रूप से आत्म-अवधारणा हमेशा वास्तविकता के साथ सटीक रूप से मेल नहीं खा सकती है। जब ऐसा होता है, तो इसे "संगत" माना जाता है, और जब ऐसा नहीं होता है, तो इसे "असंगत" माना जाता है।
कभी-कभी जीवन की परिस्थितीयों की कुछ मजबूरियों के कारण, किसी व्यक्ति की आत्म-छवि इस हद तक बिगड़ जाती है कि व्यक्ति को अपनी क्षमता और मूल्य का एहसास नहीं हो पाता है। आत्म-छवि के बिगड़ने से व्यक्ति COMPULSIVE SUBMISSIVE BEHAVIOUR जैसे मानसिक रोग का शिकार हो जाता है और मन की शक्ति का नुकसान होता है।और यह रोग आत्म-छवि को और भी ज़्यादा नुकसान पहुँचाता है। परिणाम स्वरूप एक पारस्परिक फ़ीड-बैक लूप, जिसे VICIOUS CIRCLE कहते है, स्थापित हो जाता है।
लेकिन जब हम अपनी स्वयं की क्षमता और मूल्य महसूस करने के बिंदु पर पहुंच जाते हैं, तो दूसरों के द्वारा हमारी क्षमता और मूल्य निर्धारित करने की निर्भरता समाप्त हो जाती है। तब स्वाभिमान का जादू काम करने लगता है। सत्य (TRUTH) एक ऐसी चीज है, जिस क्षण से आपको इसका एहसास होता है, आप एक नए व्यक्ति में बदल जाते हैं। अब पहले जैसा रहना मुश्किल हो जाता है। अब पहले जैसे आप रह ही नहीं सकते क्यूँकि आपने एक ऐसा खजाना खोज लिया है जो पहले से ही आपके पास था लेकिन ना तो उसके होने का अहसास था और ना ही उसके मूल्य का पता था। अब परिवर्तन अपरिहार्य है। परिवर्तन में कष्ट तो है, परंतु कष्ट के उपरांत आनंद भी है। आखिर में आनंद निश्चित है, चाहे वो सफलता का हो, या मुक्ति का।
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Brij Sachdeva